मनुष्य झूठ क्यों
बोलता है ? इसके पीछे दो कारण हैं : (1) व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए (किसी डर
से मिथ्या कहना भी व्यक्तिगत स्वार्थ के भीतर आ जाता है); (२) स्वभावगत भाव
से। यह विश्व ब्रह्माण्ड सत्य में विधृत है। जीव-जन्तु असत्य भाषण नहीं
करते, उद्भिद जगत भी असत्य भाव का पोषण नहीं करता। जब तक दूसरा कुछ सीख न ले, शिशु
भी असत्य कथन नहीं कहता या असत्य का भाव पोषण नहीं करता। जिन्हें हम अनग्रसर
मनुष्य कहते हैं वे भी असत्य नहीं कहते और उस भाव का पोषण भी नहीं करते हैं।
जो तथाकथित प्राग्रसर मनुष्य हैं वे ही व्यक्तिगत स्वार्थ या
स्वभावगत रूप से असत्य कथन करते हैं। किन्तु जो लोग धर्मनिष्ठ होते हैं वे अनग्रसर
मनुष्य की तरह सत्यनिष्ठ तो होते ही हैं, पर उनसे भी कुछ अधिक ही होते हैं। जो
जैसा है वैसा ही घटित हुआ-उसे हम ‘ऋत’ कहते हैं। अनग्रसर सरल मनुष्यों में यह ऋत
की भावना और ऋतात्मिक विधृति रहती है। किन्तु जो लोग धर्मनिष्ठ होते हैं वे ऋत को
और भी (गंभीरता से) मानते हैं, उसे संशोधित करते हैं और फिर उसे जगत के कार्य में
लगाते हैं। जहाँ ऋत अकल्याण का इशारा करता है, जहाँ ऋत अनृत का निशाना देता है,
वहाँ वे ऋत को कल्याण के उपयुक्त रूप बना लेते हैं। इस कल्याणकृत ऋत को ही सत्य
कहा जाता है।
इस सत्य पर ही धर्म की बहुपल्लवित सम्वृद्धि और विस्तृति निर्भरशील
है। अर्थात् जो सत्य को नहीं मान रहे, ऋत को भी नहीं मान रहे, जो व्यक्तिगत स्वार्थ
से या स्वभावगत स्वार्थ से मिथ्या को प्रश्रय देते हैं, उनके पास धर्म रह ही नहीं
सकता। जो मनुष्य व्यक्तिगत स्वार्थ से मिथ्या कहता है वह पशुपक्षियों से क्या,
उद्भिद् से भी गया-गुजरा है। जो स्वभावगत रूप से मिथ्या भाषण करता है, समझना होगा
उसने दीर्घकाल से अबाध रूप से अथवा स्वचेष्टा से मिथ्या भाषण का अभ्यास किया है।
वह अभ्यास ही उसका स्वभाव बन गया है ।
अभ्यास को दूर करने के लिए कुछ कष्ट करना जरूरी है। किन्तु स्वभाव
परिवर्तन के लिए दीर्घकालीन प्रयास की जरूरत है। कहा गया है कि - वस्तुतान्त्रिक
जगत में होने वाले समस्त अपराधों का मूल कारण है मिथ्या, “फाल्स हूड इज द नाउमिनल
काज ऑफ आल फिनामेनल क्राइम्स”।
इस कारण यदि कोई कितना भी धर्म का दिखावा क्यों न करे, जितना भी
पूजा-पाठ गोबर- गंगाजल लेकर दिखावा क्यों न करे, कितनी ही तीर्थ यात्रा क्यों न
करे और वहाँ घूमने तथा सिर मुड़ाने क्यों न जाए, यदि वह सत्यनिष्ठ नहीं होता तो वह
धर्म की त्रिसीमा (चौहद्दी) में नहीं रह सकता है। इसलिए शिव ने स्पष्ट
शब्दों में कहा था-’’धर्मः सः न यत्र न सत्यमस्ति।”
मनुष्य सत्याश्रयी होवे या न होवे, इस विश्व का परिवेश सत्याश्रयी
है। हर एक जीव-जन्तु, हर एक उद्भिद् सत्य का ही प्रतिबिम्ब है। ताल के वृक्ष पर
दागों को देखकर ही उसकी उम्र पहचानी जा सकती है। नौकरी में सुविधा मिलेगी यह सोचकर
वह अपनी उम्र में घटाव-जोड़ नहीं करता। बरगद के वृक्ष के पत्तों की शिरा-उपशिराओं
में एक ही प्रकार की रेखाएं हैं। टैक्स से बचने के लिए वे रेखाओं में हेर-फेर
नहीं करते। बकरी
को पकड़ने में सुविधा होगी इस कारण भेड़िया अपने गले की आवाज नहीं
बदलता। ये सब सत्य के प्रतिभू मिथ्या से अपरिचित हैं।
कुछ देर पहले ही कहा था कि मनुष्य मिथ्या का सहारा स्वार्थ के कारण
ही लेता है। मनुष्य का जो परिवेश है, उस परिवेश में क्षुद्र स्वार्थ के कारण ही हो
या वृहत् स्वार्थ के कारण ही हो, सत्य में कलंक का लेपन करके ये मिथ्या की
छत्रछाया में आश्रय पाने के लिए अपप्रयास नहीं करते। मनोविज्ञान की दृष्टि से यही
प्रमाणित होता है कि मनुष्येतर जीवों से मनुष्य अधिक
स्वार्थान्धी,अधिकक्षुद्रचेताहै। स्वभावगत रूप से मिथ्याचारी होने का सुयोर्ग इंट,
पत्थर, लकड़ी, बालू आदि को तो है ही नहीं, उद्भिद् तथा मनुष्येतर जीवों को भी नहीं
है (पर यदि मनुष्य उन्हें मिथ्याचार सिखाए तो दूसरी बात होगी)। मनुष्य के सामने भी
स्वभावगत रूप से मिथ्यावादी बनने का स्वाभाविक सुयोग नहीं है। बुद्धिमान तथा
नीचाशय व्यक्ति अपचेष्टा के माध्यम से इस सुयोग को बना लेते हैं।
कहा जाता है, ”प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्।” एक मिथ्याचारी मनुष्य जिसकी
संस्कारगत तरंग मिथ्याश्रयी है, उसे इस जगत के सत्याश्रयी परिवेश में रहना पड़ता है
अर्थात ईंट-पत्थर- लकड़ी- उद्भिद्-जीवजन्तु तथा मनुष्य जाति का एक वृहत अंश
सत्याश्रयी, उनके संस्कारगत तरंग सत्याश्रयी है, उनके बीच रहना पड़ता है। किन्तु
मिथ्याश्रयी मनुष्य की मिथ्याश्रयी भावतरंग है, मिथ्याश्रयी संस्कार हैं। प्रतिकूल
संस्कार या प्रतिकूल भावतरंग के परिवेष्ठन में मनुष्य प्रतिकूलवेदनीयं दुःखं का
अनुभव करेगा। इसलिये एक मिथ्यावादी मनुष्य सत्यविधृत जगत में दुःखबोध अवश्य ही
करेगा। इसी कारण शिव जगत के मनुष्यों को सावधान कर कह गए हैं, ”मिथ्यावादी सदा
दुःखी।”
--श्री श्री आनंदमूर्ति
चित्र साभार: www.amadisonmom.net
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